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Subhas Chandra Bose के कुछ अधखुले पन्ने

 Subhas Chandra Bose के इग्लैड की यात्रा



15 सितंबर 1919 को सुबास इंग्लैड के लिए रवाना हुए । यद्यपि वह कुछ विलंब से वहां पहुंचे, तथापि उनको कैब्रिज विश्वविध्यालय में प्रवेश पाने में सफलता मिल गई और अंतत: जुलाई 1920 में उनहोंने आठ विषयों - अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीतिशास्त्र दर्शनशास्त्र, अंग्रेजी, विधिशास्त्र, आधुनिक यूरोप का इतिहास और मानचित्रकला के साथ  आई0 सी0 एस की परीक्षा दी। परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। प्रतियोगिता में उन्हें चौथा स्थान प्राप्त हुआ था। फिर भी बोस को कोई बहुत प्रसन्नता नहीं हुई, क्योंकि वह जीवन में कोई महान कार्य करने के लिए पैदा हुए थे। सिविल सेवा परीक्षा में मिली सफलता के फलस्वरूप उनका जीवन के महानतम संकट के साक्षात्कार हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वह अपनी पहली वास्तविक परीक्षा के विपरीत जा रहे थे - क्या उन्हें अपने ही आदर्शों और सिद्धांतों पर टिके रहना है या 'सर्वोच्च' सेवा के लोभ के सामने घुटने टेक देना है ? उन्होंने अपने बड़े भाई श्री शरतचंद्र से पत्रों के माध्यम से विस्तृत विचार - विमर्श किया। उन्होंने अपनी मन:स्थिति से अवगत कराया और उनकी सलाह मांगी। सेवा से त्यागपत्र देने का निर्णय करने के बाद उन्होंने राष्ट्र के लिए अपनी सेवाएँ प्रदान करने के बारे में देशबंधु चितरंजनदास को पत्र लिखा।

सुभाष जानते थे कि उन्हें परिवार के अधिकांश सदस्य उन्हें 'सनकी' मानते हैं।अतः वह अच्छी तरह समझते थे कि उनके सिविल सेवा को त्यागने के निर्णय को लेकर घर में बहुत शोर मचेगा। उनका दृढ विश्वास था कि वह जो भी निर्णय लेंगे उनके बडे भाई शरत ही उनका समर्थन करेंगे, जैसा कि संकट के प्रत्येक क्षण में उन्होंने किया था; यद्यपि वह जानते थे 'उनकी सन की योजनाओं का समर्थन उनके अलावा उनके संबंधियों में शायद ही कोई करता था। सुभास इस संभावना से भी अत्यंत चिंतित थे की उनके त्यागपत्र के निर्णय से संभवतः उनके वृध और अस्वस्थ माता - पिता को आघात पहुंचेगा। उन्होंने अपने माता पिता को यह बात समझाने के लिए अपने बड़े भाई शरत का आश्रय लिया की स्वतंत्रता की बलिवेदी पर उनके पुत्र का यह तुच्छ बलिदान देश के हित में है और यह बलिदान पूरी चेतना और स्वेच्छापूर्वक होना चाहिए। उन्होंने अपने भाई से यह भी कहा कि उन्होंने विदेश में उनकी शिक्षा पर जो भी पैसा खर्च किया उसे भी बिना किसी प्रतिफल की आशा से माँ के चरणों में दी गई छोटी सी भेंट समझना चाहिए। अप्रैल 1921 में औपचारिक रूप से अपना त्याग पत्र भेजने से तीन सप्ताह पूर्व अपने भाई को पत्र में उन्होंने संक्षेप में लिखा कि सिद्धांत और स्वार्थपरता के बीच अपने अंदर चल रहे अंत: संघर्ष से तादात्म्य में स्थापित न कर सकने या उसका समाधान न कर पाने के क्या क्या कारण थे।

"एक ओर स्वामी विवेकानंद और दूसरी ओर अरविंद घोष के प्रभाव में बड़े हुए हम जैसे लोगों ने भाग्यवश अथवा दुर्भाग्यवश  एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली है जो दो कदम विपरीत विचारों में समन्वय को नहीं स्वीकार कर सकती।"

 22 अप्रैल 1921 को सुभाष चंद्र बोस ने कैंब्रिज से अगस्त में एक खुली प्रतियोगिता परीक्षा में चुने गए भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रशिक्षु सूची में अपना नाम वापस लेने के संबंध में भारत के राज्य सचिव ई. एस. मांटेंग्यू को पत्र लुखे थे।

 उन्हें इस बात का दुख था कि एक हंसते खेलते परिवार में प्रसन्नता का वातावरण उत्पन्न करने के लिये वह उत्तरदायी थे। इसका कारण यह था कि उन्होंने कुछ ऐसे विचार विकसित हो गए थे जो दुर्भाग्य से दूसरों को स्वीकार्य नहीं थे।

सुभाष चंद्र बोस द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र दिए जाने से इंग्लैंड के भारतीय समुदाय में सनसनी फैल गई। यह समाचार तेजी से भारत पहुंचा और देश भर में इस विषय पर उत्तेजनापूर्ण बहस छिड़ गई। सुभाष स्वयं उत्तेजना और सार्वजनिक प्रशंसा दोनों में से ही दूर रहना चाहते थे। स्पष्टत: व इसे आत्मोत्सर्ग मानते थे। उन्होंने अपने भाई शरद को भी लिखा था - 

 "आपने अपने पत्र में मेरी भुरि - भुरि प्रशंसा की है, जिसके योग्य मैं नहीं हूं। मैं केवल इतना ही करता हूँ कि मुझे आप पर गर्व है।"

 उन्होंने आगे लिखा-

 मुझे इस बात का एहसास है कि मैंने कितने दिल दुखाये हैं, मैंने अपने कितने अंग्रेजों की आवज्ञा की है, परंतु इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की पूर्व - संध्या पर मैं केवल यही प्रार्थना करता हूँ कि यह मेरे प्रिय देश के लिए कल्याणकारी हो।"

 उन्होंने उस समय अत्यधिक शांति मिली जब अंततः उन्हें अपनी माँ का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि दूसरे लोग अनादर व्यक्त कर सकते हैं, किंतु उनकी पक्षपातपूर्ण टिप्पणियों के बावजूद महात्मा गाँधी के आदर्शों में उनकी आस्था है।" 

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